शुक्रवार, 18 जून 2010

क्या भारत की दसा से आप सनतुषट है!

जियो औेर औरो को भी जीने दो की भावना यदि हमारे देश में विकसित हो जाये तो सारे कष्ट ही समाप्त हो जाये परन्तु क्या करे जब बड़ी मछली छोटी मछली को खा रही है ऐसे मे छोटी मछली यदि सौभाग्य वश बड़ी हो जाती है तो उसकी सोच भी सकारात्मक न होकर नकारात्मक ही होती है बस बुराई की प्रवृति भी यही से विकसित होती है काश उसने भी सकारात्मक सोच को विकसित किया होता तो शायद इस प्रवृति में सुधार होता और हो सकता था कि सभी बड़ी बड़ी मछलिया छोटी मछली को अपना मुॅंह का निवाला न बनाती और उनको भी जीने का हक देती और जो यह समाजरुपी तालाब दूषित हो रहा है वह न होता।हम समाज में बसे रहे यह एक अलग बात है और समाज को हमारे बसाने की आवश्यकता हो यह एक महत्वपूर्ण बात है यदि पूर्वालोकन करे तो ऐसे प्राणी भी हुये है तो हम क्यों ऐसे नहीं हो सकते हममें क्या कमीं है जो हम भटक रहे है स्वयं तो भटकन भरा जीवन व्यतीत कर ही रहे है और जिस देश के हम वांशिदे है उस देश की दशा भी अव्यवस्थित हो रही है क्योंकि हमारे किसी भी अच्छे बुरे कृत्य का प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से हमारे परिवार पर पड़ता है और परिवारो का समूह ही हमारा प्यारा सा भारत देश है, न जाने हम क्यों दूसरो की बुरी बातो को तो ग्रहण करते है परन्तु किसी की अच्छाई को ग्रहण नहीे करते आज हम पश्चिमी सभ्यता के दुशाले को ओढ़कर इतने मद मस्त होते जा रहे है कि हमने अपने देश की संस्कृति को ही विस्मृत कर दिया है हम भूल गये है कि हमारे पूर्वज किन किन मर्यादाओ मे रहते हुये जीवन व्यतीत करते थे और आज हम मर्यादित जीवन न जीकर अमर्यादित जीवन जी रहे है यह माना कि प्रगति करना अच्छी बात है परन्तु जब हम प्रगतिमय होते जा रहे तो थोडी़ सी चुभन होती है कि जो आज आज है, जब भविष्य होगा तो क्या होगा आज भूत को रोयेगा,और उस समय के वर्तमान की दशा कैसी होगी कभी आपने सोचा है अरे सोचेगे भी क्यों आपको तो फुर्सत ही नहीं होगी काम से क्योकि आप तो दुशाला ओढ़े हुए है पश्चमी सभ्यता का,आप ग्रहण तो करते है परन्तु धारण नहीं करते जिस दिन ग्रहण और धारण का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा उस दिन भारत की दशा व्यवसथित होगी तो देर किस बात की है